तिरुपति बालाजी (वेंकटेश्वर ) और श्री महालक्ष्मी (अंबाबाई) कथा और रहस्य | TIRUPATI BALAJI TEMPLE

तिरुपति बालाजी (वेंकटेश्वर )और श्री महालक्ष्मी (अंबाबाई) कथा और रहस्य 

                       तिरुपति बालाजी 

तिरुपति बालाजी( वेंकटेश्वर )

तिरुपति बालाजी का विश्व प्रसिद्ध आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले के पास तिरुमाला पहाड़ी पर स्थित है, जहां पर

 भगवान श्री हरी विष्णु कि वेंकटेश्वर के रूप में पूजा होती हैं| भगवान श्री वेंकटेश्वर अपनी पत्नी पद्मावती  (लक्ष्मी

 माता )के साथ तिरुमला में निवास करते हैं| आओ जानते है तिरुपति बालाजी कि कहानी और  मंदिर के रहस्य के

 बारे में|

तिरुपति बालाजी कि दो कथाएं है | पहली कथा उनके वराह अवतार कि और दूसरी कथा  माता लक्ष्मी और

 उनके वेंकटेश्वर रूप में जुड़ी हैं |

भगवान विष्णु वराह अवतार

पहली कथा : आदि काल मे धरती पर जल ही जल हो गया था | यानि पैर रखने के लिए कोई जमीन नहीं बची थी |

 कहतें  हैं  कि ऐसा एसलिए हुआ क्योंकि पवन देव ने भारी अग्नि को रोकने के लिए उग्र रूप से उड़ान भरी जिससे

 बदल फट गए और बहुत बारिश हुई और धरती जलमग्न हो गई | धरती पर पुन:जीवन का संचार करने के लिए

 श्रीहरी विष्णु ने तब आदि वराह अवतार धारण किया | 

उन्होंने अपने इस अवतार में जल के भीतर कि धरती को ऊपर तक अपने तुस्क  का उपयोग करके खींच लिया|

 इसके बाद पुन:ब्रम्हा के योगबल से लोग रहने लगे और आदि वराह ने तब बाद में  ब्रम्हा के अनुरोध पर एक रचना

 का रूप धरण किया और अपने बेहतर आधे  (4 हाथों वाले भुदेवी ) के साथ कृदचला विमाना पर निवास किया

 और लोगों को ध्यान योग और कर्म योग जैसे वरदान देने का फैसला किया| 

दूसरी कथा : कलियुग के प्रारंभ होने पर आदि वराह वेंकटाद्री पर्वत छोड़कर अपने लोग चले गए जिसके चलते

 ब्रम्हाजी चिंतित रहने लगे और नारद जी से विष्णु को पुन:लाने के लिए कहा| नारद एक दिन गंगा के तट पर गए

 जहा पर ऋषि एस बात को लेकर भ्रम में थे कि हमारे यज्ञ का फल त्रिदेवों में से किसे मिलेगा |नारद जी ने उनके

 शंका का समाधान हेतु भृगु को यह कार्य सौंपा |भृगु ऋषि सभी देवताओं के पास गए , लेकिन भगवान शिव और

 विष्णुजी ने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया तो वे क्रोधित हो गए | क्रोधित होकर भृगु ऋषि ने विष्णुजी कि छाती पर

 एक लात मार दी | इसके बावजूद विष्णु जी ने ऋषि के पैरों कि यह सोचकर मालिश कि कि काही उनके पैंरो में

 दर्द ना होने लगा हो | यह देखकर ऋषि भृगु को सभी ऋषियों को उत्तर दिया कि उनके यज्ञ का फल हमेशा

 भगवान विष्णु को समर्पित होगा | 

भृगु ऋषि

परंतु श्रीहरी विष्णु कि छाती पर लात मारने के कारण माता लक्ष्मी क्रोधित हो गई | उन्हे अपने पति का अपमान

 सहन नहीं हुआ और वे चाहती थी कि भगवान विष्णु ऋषि भृगु को दंडित  करें, परंतु ऐसा नहीं हुआ | परिणाम

 स्वरूप उन्होंने वैकुंठ को छोड़ दिया और तपस्या करने के लिए धरती पर आ गई और करवीरापूरा (कोल्हापूर ) में

 ध्यान करना शुरू कर दिया | इधर, विष्णुजी के एस बात से दु:खी थे कि माता लक्ष्मी उन्हे छोड़कर चली गई | कुछ

 समय बाद वे भी धरती पर आकर माता लक्ष्मी को ढूंढने लगे | जंगल और पहाड़ियों पर भटकने के बाद भी वह

 माता  को खोज नहीं पाए | आखिर परेशान होकर विष्णुजी वेंकटाद्री पर्वत में एक चींटी के आश्रय मे विश्राम करने

 लगे |यह देखकर ब्रम्हाजी  ने उनकी सहायता करने का  फैसला किया | वे गाय और बछड़े का रूप धारण करके

 माला लक्ष्मी के पास गए | 

देवी लक्ष्मी ने उन्हे देखा और उस व्यक्त के सत्ताशीस शासक चोल राजा को उन्हें सौंप दिया | राजा ने उसे चरवाहे

 को सौंप दिया | परंतु वह गाय सिर्फ विष्णु जी के रूप श्रीनिवास को ही दूध देती थी जिस कारण चरवाहे  पर हमला

 करके गाय को बचाया और क्रोधित होकर उन्होंने चोल राजा को एक राक्षस के रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया|

 राजा ने  प्रार्थना कि तब श्रीनिवास ने कहा कि राजा को दया तब मिलेगी जब वह अपनी बेटी पद्मावती का

 विवाह मूझसे करेगा | जब यह बात देवी लक्ष्मी (पद्मावती ) को पता चली तो वें वहां आई और तब उन्होंने श्रीहरी को

 पहचान लिया और जिसके बाद भगवान विष्णु और लक्ष्मीजी एक दूसरे से मिले  और उसके बाद वे पत्थर मे

 बदल गए|  

तिरुपति बालाजी

कहते है कि श्रीहरी विष्णु ने वेंकटेश्वर स्वामी के रूप में अवतार लिया था| यह भी कहा जाता हैं कि

 कलयुग के कष्ट से लोगों को बचाने के लिए उन्होंने यह अवतार लिया था| इसलिए भगवान के इस रूप में मां लक्ष्मी

 भी समाहित हैं इसीलिए यहां बालाजी को स्री और पुरुष दोनों के वस्त्र पहनाने कि यहां परंपरा हैं| बालाजी को

 प्रतिदिन नीचे धोती और ऊपर साड़ी सजाया जाता हैं| 

                    तिरुपति बालाजी कि मूर्ति का रहस्य 

तिरुपति मंदिर

तिरुपति बालाजी के रहस्य के बारे में वैज्ञानिक भी नहीं समझ पाए | कहा जाता है कि भगवान वेंकटेश्वर स्वामी कि

 मूर्ति पर लगे बाल असली हैं| 

समुद्र कि लहरों कि ध्वनि यहाँ जाने वाले बताते हैं कि भगवान वेंकटेश कि मूर्ति पर कान लगाकर सुनने पर समुद्र

 कि लहरों कि ध्वनि सुनाई देती हैं| 

 मंदिर के मुख्य द्वार पर दरवाजे के दाईं और एक छड़ी हैं| इस छड़ी के बारे में कहा जाता हैं कि बाल्यावस्था में इस

 छड़ी से ही भगवान बालाजी कि पिटाई कि गई थी| 

तिरुपति  बालाजी के मंदिर में एक दिया सदैव जलता रहता हैं| इस दिए में न ही कभी तेल डाला जाता हैं और न ही

 कभी घी| 

तिरुपति बालाजी को गुरुवार को चंदन का लेप लगाया जाता है |  भगवान बालाजी को जब चंदन का लेप लगाया

 जाता है और उस लेप को जब हटाया जाता है तो हृदय पर लगे चंदन में देवी लक्ष्मी कि छवि उभर आती हैं| 

ऐसा कहा जाता हैं कि बालाजी कि मूर्ति को पसीना आता हैं |  मंदिर के वातावरण को काफी ठंडा रखा जाता हैं|

 उसके बावजूद मान्यता है कि बालाजी को गर्मी लगती है|  कि उनके शरीर पर पसीने कि बुंदे देखी जाती है और

 उनके पीठ भी नम रहती हैं|

    कोल्हापूर श्री महालक्ष्मी कि कथा क्या है ? क्या है यह का रहस्य? 

            कोल्हापूर श्री महालक्ष्मी (अंबाबाई )
श्री महालक्ष्मी
कोल्हापूर कि श्री महालक्ष्मी को करवीर निवासी अंबाबाई के नाम से भी जाना जाता है| तिरुपति यानि भगवान विष्णु

से रूठकर उनकी पत्नी महालक्ष्मी कोल्हापूर आई | इस वजह से आज भी तिरुपति देवस्थान से आया शालू उन्हें

 दिवाली के दिन पहनाया जाता हैं|

ऐसी मान्यता है कि देवी सती के इस स्थान पर तीन नेत्र गिराए थे| यहाँ भगवती महालक्ष्मी का निवास माना जाता हैं|

 इस मंदिर कि एक खासियत यह भी है कि साल  में एक बार मंदिर मौजूद देवी कि प्रतिमा पर सूर्य कि किरने माँ 

 महालक्ष्मी पर  पड़तें हैं| 

               महालक्ष्मी मंदिर का चमत्कारी रहस्य क्या है?  
श्री महालक्ष्मी मंदिर कोल्हापूर
करीब 1,300 साल पुराने दुनिया के सबसे प्राचीन महालक्ष्मी मंदिर है जो महाराष्ट्र के कोल्हापूर मे स्थित है| चलिए

 इस मंदिर का आपको एक रहस्य बताते हैं | 

साल मे दो बार नवंबर और जनवरी में तीन दिनों तक ग्रह में महालक्ष्मी कि प्रतिमा को स्पर्श करती है| पहले दिन

 सूर्य कि किरणें महालक्ष्मी के चरणों को दूसरे दिन कमर को तथा तीसरे दिन चेहरे को स्पर्श करती है| इसे

 किरणोंत्सव कहा जाता हैं|  जिसे देखने हजारों लोग जुटते हैं|  गर्भ ग्रह में स्थित प्रतिमा और मंदिर परिसर के पश्चिम

 दरवाजे कि दूरी 250 फिट से ज्यादा है|  किरण उत्सव के दोनों अवसरों पर परिसर कि बत्तियां बुजा दे जाती है|

 महालक्ष्मी का मुख्य पश्चिम मे हैं हरिद्वार 500 हैं|  साल में दो बार उत्तरायण और दक्षिणायन में सूर्यास्त  के व्यक्त

 सूर्य कि विशेष स्थिति में आता हैं|  तब किरणें मुख्य द्वार से होती हैं|  माँ लक्ष्मी पर पड़ती हैं| 5 मिनट के किरणोंत्सव

 को देखने हजारों लोक जुटते हैं|   

कोल्हापूरची  महालक्ष्मी
  तिरुपति बालाजी और श्री महालक्ष्मी कि कथा आपको कैसी लगी कमेंट करना |  gossips 360.com धन्यवाद.       
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